जन्माष्टमी की अनसुनी कहानी
टूटा-फूटा, पहाड़ी पर बना 300 साल पुराना कृष्ण मंदिर, जहां अब कोई नहीं आता। केवल एक बुज़ुर्ग पुजारी, पंडित रघु, हर जन्माष्टमी की रात यहां आता है। अकेला। हर साल। बिना एक भी भक्त के पंडित रघु ने मंदिर की सफाई की। धूल झाड़ी, दीये सजाए, माखन की कटोरी तैयार की। मंदिर चारों ओर से वीरान था। गांव से दूर, कोई आवाज़ नहीं, कोई रौशनी नहीं। केवल उसकी सांसों और दीयों की टिमटिमाहट की आवाज़।वो हमेशा की तरह 108 बातियों वाले दीये जलाने लगा। लेकिन आज दीये बार-बार
Click Here To Watch This Story In 2D Animation On YouTube
बुझने लगे। वो घबरा गया। मंदिर के सारे दरवाज़े बंद थे, हवा का कोई रास्ता नहीं था। फिर भी लौ जैसे किसी अदृश्य सांस से बुझ रही थी।रघु ने घड़ी देखी। हर साल की तरह, आरती से पहले वह पुरानी पीतल की घड़ी देखता था जो हर जन्माष्टमी की रात 12:00 बजे खुद रुक जाती थी। पर आज वह 10:00 बजे ही रुक चुकी थी।रघु ने गीता उठाई। श्लोक पढ़ने लगा। लेकिन इस बार मंत्रों की गूंज मंदिर की दीवारों से टकराकर लौट नहीं रही थी। जैसे शब्द निगले जा रहे हों। वह कांप गया।
माखन की कटोरी बाल गोपाल की मूर्ति के सामने रखी गई। तुलसी, फूल, मिश्री सब सजा दी। रघु ने मूर्ति की तरफ देखा। उसे लगा जैसे मूर्ति की मुस्कान आज कुछ अलग है। बहुत हल्की, पर अजीब।फिर बुझने लगे। मंदिर के कोनों से सीलन की गंध आने लगी। दीवारों पर नमी सी दिखाई दी। जैसे कोई गुफा हो। अचानक मूर्ति की आंखों से एक बूँद गिरी – काली बूँद। रघु पीछे हट गया। वह डर गया पर फिर भी वहीं बैठा रहा।रघु ने आरती की थाली तैयार की। वह घंटी बजाने ही वाला था कि मंदिर की घंटी खुद बजने
लगी। लेकिन आवाज़ उल्टी दिशा से आ रही थी। दीवार पर नाखून से खुरचे हुए अक्षर उभरने लगे:”माखन नहीं चाहिए। इस बार… तू चाहिए।”घंटी तेज़ होने लगी। दीये अपने आप बुझ गए। मूर्ति की माला एक सांप में बदल गई। माखन की कटोरी का सफेद रंग अब गाढ़े लाल रंग में बदल गया था। रघु के हाथ काँपने लगे।रघु भागना चाहता था। लेकिन मंदिर का दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। पीछे से फुसफुसाहट सुनाई दी:”क्यों डर रहा है रघु? तूने ही तो बुलाया था मुझे… हर साल…”
रघु ने पीछे मुड़कर देखा – मूर्ति की जगह अब एक लंबी काली परछाईं खड़ी थी। चेहरे पर सिर्फ एक मुँह, जो मुस्कुरा रहा था। आँखें नहीं थीं।”क… कौन है तू?” रघु चिल्लाया।परछाईं ने कहा – “मैं वो हूँ, जिसे तूने भगवान समझा। हर साल तेरा माखन खाया, पर भगवान नहीं था मैं। एक भूख था, जो अब पूरी होनी है। 40 साल से इंतज़ार कर रहा हूँ। अब तेरी बारी है।”रघु ज़मीन पर गिर पड़ा। हाथ जोड़ लिए। “माफ़ कर दो… माखन ले लो… कुछ भी ले लो…”साया हँसा – “बिलकुल। यहाँ उस डरावनी कहानी का आगे का हिस्सा है, चार पैराग्राफ़ों में एक रहस्यमयी और भयावह अंत के साथ:
रघु ने भागने की आखिरी कोशिश की, लेकिन उसके पाँव ज़मीन में धँसने लगे — जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे नीचे खींच रहा हो। वो चिल्लाया, “हे कृष्ण! रक्षा करो!” लेकिन अब कोई मंत्र, कोई आरती, कोई आस्था उसकी आवाज़ में बाकी नहीं थी — सिर्फ पछतावा था। परछाईं ने हँसते हुए कहा, “भगवान कहाँ है, रघु? तूने जिन्हें पूजा, वो सिर्फ मेरा चेहरा था।”
घंटियों की आवाज़ अब किसी चीख की तरह गूंजने लगी थी। मंदिर की छत से धूल गिरने लगी, दीवारों से लहू रिसने लगा। बाल गोपाल की मूर्ति अब पिघलती हुई किसी काले गारे में बदल रही थी, और उस गारे से वही परछाईं फिर-फिर जन्म ले रही थी — हर बार थोड़ी और बड़ी, थोड़ी और डरावनी। रघु की आँखें अब खुली थीं, लेकिन उनमें कोई चेतना नहीं बची थी — सिर्फ डर की राख थी।
अगली सुबह गांव में सूरज उगा, लेकिन पहाड़ी मंदिर की घंटी कभी नहीं बजी। कुछ चरवाहों ने देखा – मंदिर के दरवाज़े खुले थे, पर भीतर कोई नहीं था। बस एक काली, जली हुई लकीर फर्श पर बनी थी, जो बाल गोपाल की खाली मूर्ति तक जाती थी। और उसके नीचे खुरचकर लिखा था – **”अगली जन्माष्टमी… कौन आएगा?”**
निष्कर्ष. Conclusion
उस पहाड़ी पर बना 300 साल पुराना कृष्ण मंदिर अब पूरी तरह वीरान हो गया। गांव के लोग धीरे-धीरे वहां जाना छोड़ने लगे। किसी ने कहा – पंडित रघु शहर चला गया, किसी ने कहा – वह रातों-रात कहीं गायब हो गया। लेकिन सच कोई नहीं जान पाया। मंदिर की सीलन भरी दीवारों पर आज भी वो खुरचे हुए अक्षर साफ़ दिखाई देते थे – **”माखन नहीं चाहिए… इस बार तू चाहिए।”**
गांव के बुज़ुर्ग लोग बच्चों को चेतावनी देने लगे कि जन्माष्टमी की रात उस मंदिर की ओर कभी मत जाना। कहा जाता है, आधी रात को वहां से घंटियों की उलटी आवाज़ आती है – जैसे कोई अदृश्य पुजारी आरती कर रहा हो। कभी-कभी दीये जलते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन कोई भी इंसान वहां मौजूद नहीं होता।
और हर जन्माष्टमी के बाद मंदिर के फर्श पर वही काली लकीर और गहरी होती जाती है, जैसे किसी और आत्मा को निगल लिया गया हो। गांव में डर फैल गया कि मंदिर अब भगवान का नहीं, किसी और “भूख” का घर है।
लोग कहते हैं, जब अगली जन्माष्टमी की रात आएगी, तो वह परछाईं फिर पूछेगी –
**”कौन आएगा?”**